दोहरी शक्सियत रखनें से इन्कार है हमें,
इसलिये अकेले रहना स्वीकार है हमें।

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अकेला भी इस तरह पड़ गया हूं,
कि मेरा हौसला भी साथ न दे रहा है।

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अधूरी कहानी के किस्सो को हिस्सो मे बांट रही हुँ मै,
दर्द भले ही दोनो के थे पर अकेले काट रही हुँ मै।

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निगाहें अकेले गुनाह करती भी कैसे,
जब तक मुस्कान उसका साथ न देती।

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स्टेशन जैसी हो गयी है ज़िन्दगी,
जहां लोग तो बहुत है, पर अपना कोई नहीं।

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किसी का हाथ कैसे थाम लूँ,
वो तनहा मिल गयी तो क्या कहूंगा।

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क्या करेंगे महफिलों में हम बता,
मेरा दिल रहता है काफिलों में अकेला।

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कैसे गुजरती है मेरी हर एक शाम तुम्हारे बगैर,
अगर तुम देख लेते तो कभी तन्हा न छोड़ते मुझे।

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