मशहूर राज़-ए-इश्क़ है किस के बयान से,
मेरी ज़बान से कि तुम्हारी ज़बान से।
इश्क ऐसी जुबान है प्यारे,
जिसे गूंगा भी बोल सकता है।
जिस को दुनिया ज़बान कहती है,
उस को जज़्बात का कफ़न कहिए।
मेरे लफ्ज़ों करम से तुम्हारा जिक्र नही जाता,
मैं कह दूँ कि बदल गया हूँ मैं,
ये झूठ जूबां से निकल कर,
दिल की दहलीज से लौट जाता।
अधूरी दास्तान व्यक्त करती एक किताब हूँ मैं,
अल्फ़ाज़ों से भरपूर मगर खामोश जुबान हूँ मैं।
जब से ये अक्ल जवान हो गयी,
तब से ख़ामोशी ही हमारी जुबान हो गयी।
दर्द-ए-दिल उन के कान तक पहुँचा,
बात बन कर ज़बान से निकला।
कहते है हर बात जुबां से हम इशारा नहीं करते,
आसमान पर चलने वाले जमीं से गुज़ारा नहीं करते,
हर हालात को बदलने की हिम्मत है हम में,
वक़्त का हर फैसला हम गंवारा नहीं करते।
जुबान खामोश, आँखों में नमी होगी,
ये बस दास्ताँ ए ज़िंदगी होगी,
भरने को तो हर ज़ख्म भर जाएंगे,
कैसे भरेगी वो जगह जहाँ तेरी कमी होगी।
अपनी जुबान से दूसरों के ऐब बयां करने से पहले,
ये सोच लेना की ऐब तुम में भी है,
और जुबान दूसरों के पास भी है।