रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजिए,
कटे ज़बान तो ख़ंजर को मरहबा कहिए।
जुबान खामोश, आँखों में नमी होगी,
ये बस दास्ताँ ए ज़िंदगी होगी,
भरने को तो हर ज़ख्म भर जाएंगे,
कैसे भरेगी वो जगह जहाँ तेरी कमी होगी।
अधूरी दास्तान व्यक्त करती एक किताब हूँ मैं,
अल्फ़ाज़ों से भरपूर मगर खामोश जुबान हूँ मैं।
अगर चराग़ की लौ पर ज़बान रख देता,
ज़बान जलती भी कब तक चराग़ जलने तक।
लफ़्ज़ों के बोझ से थक जाती हैं ज़ुबा कभी कभी,
पता नहीं खामोशी की वजह मज़बूर या समझदारी।
हर इक ज़बान को यारो सलाम करते चलो,
गिरोह की है न फ़िरक़े की और न मज़हब की।
मेरी जुबां तेरा नाम मेरे लबों पर नही आने देती,
कहीं तुम बेचैन ना हो जाओ मेरी रूह तुम्हे बुलाने नही देती,
जिस दिन मेरी जुबां से तुम्हारा नाम गलती से निकल जाता है,
उस दिन मेरी नींद भी मुझे सिरहाने नहीं देती।
लफ्जों की दहलीज पर घायल ज़ुबान है,
कोई तन्हाई से, तो कोई महफ़िल से परेशान है.
घी वफ़ा का डालिये, शक्कर रहे जुबान,
खूब लजीज बन जायेंगे रिश्तो के पकवान।
लहजे में बदजुबानी,
चेहरे पर नकाब लिए फिरते हैं,
जिनके खुद के बहीखाते बिगड़े है,
वो मेरा हिसाब लिए फिरते हैं।