कभी हसाती है,
तो कभी गम के सागर में डूबा जाती है,
वो चाय की टपरी,
अपनी ना होते हुए भी बहुत याद आती है।
चाय वो मेहबूब है,
जो शिकायत का मौका नहीं देती,
चाय वो मेहबूब है,
जनाब जो कभी धोका नहीं देती।
सुबह का ही समय होता है,
जब जन्नत का एहसास होता है,
आँखे आधी बंद होती है,
फिर भी चाय की तलाश होती है।
वो तेरे शहरी कप के चाय,
उसमे क्या स्वाद आएगी,
कुल्हड़ में पी के देख कभी
उसी चाय की स्वाद दिल को छू जाएगी।
एक सुबह की चाय तुम्हारी,
और एक चाय हमारी भी,
कुछ बातें दिल में तुम्हारे भी,
और कुछ जज्बात हमारे भी।
अब अपने लोग मुझे गैर और,
गैर लोग मुझे अपने लगते है,
अब चाय संग नमकीन,
जैसे दारू संग चखना लगता है।
कभी हसाती है,
तो कभी गम के सागर में डूबा जाती है,
वो चाय की टपरी,
अपनी ना होते हुए भी बहुत याद आती है।
तेरी यादों की गर्माहट ने मानो,
नस नस में नशा फुक दिया है,
मैंने दिल के घावों को,
अभी भी चाय के जरिये भर दिया है।
पहली मुलाकात थी उनसे,
और अपने इश्क़ के इजहार को,
चाय की दीवाने निकले हम दोनों,
क्या कहें इस इस्तेफ़ाक़ को।
तारीफे बयां कर रहे थे लोग,
अपने अपने पसंदीदा जाम की,
खामोशी बसर हो गई महफ़िल में,
जब मिसाल दी मैने चाय की।