कभी तेरी बातें भूल जाऊं, कभी तेरे लफ्ज़ भूल जाऊं,
इस कदर मोहब्बत है तुझसे के अपनी ज़ात भूल जाऊं,
तेरे पास से उठ के जब मैं चल दूँ ऐ मेरे हमदम,
जाते जाते खुद को तेरे पास भूल जाऊं।
जुबां से लफ्ज़ नहीं,
बस आखों से अश्क़ बह रहे हैं,
मुझ बेगुनाह को सजा देने के लिए,
ना जाने लोग क्यों चीख-चीख कर कह रहे हैं।
बोलने से पहले लफ्ज,
इन्सान के गुलाम होते हैं,
लेकिन बोलने के बाद इंसान,
अपने लफ्ज का गुलाम हो जाता है।
दो चार लफ्ज़ प्यार के लेकर हम क्या करेंगे,
देनी है तो वफ़ा की मुकम्मल किताब दे दो।
तू मुझमे पहले भी था, तू मुझमें अब भी है,
पहले मेरे लफ़्ज़ों में था, अब मेरी खामोशियों में है।
हर बात, लफ़्ज़ों क़ी मोहताज़ हो,
ये ज़रूरी तो नहीं,
कुछ बातें, बिना अल्फ़ाज़ के भी,
खूबसूरती से बोली और समझी जाती हैं ।
मुझ से खुशनसीब हैं मेरे लिखे हुए ये लफ्ज़,
जिनको कुछ देर तक पढेगी, निगाह तेरी।
छुपी होती है हर लफ़्ज मे दिल की बात,
लोग शायरी समझ कर वाह-वाह कर देते।
ये जो तुम लफ्जों से बार-बार चोट देते हो ना,
दर्द वही होता है जहां तुम रहते हो।
जब लफ्ज़ खामोश हो जाते हैं,
तब आँखे बात करती है,
पर बड़ा मुश्किल होता है,
उन सवालों का जवाब देना,
जब आँखे सवाल करती हैं।