मैंने पूछा उनसे, भुला दिया मुझको कैसे?
चुटकियाँ बजा के वो बोले… ऐसे, ऐसे, ऐसे।
निकला करो इधर से भी होकर कभी कभी,
आया करो हमारे भी घर पर कभी कभी,
माना कि रूठ जाना यूँ आदत है आप की,
लगते मगर हैं अच्छे ये तेवर कभी कभी।
नहीं डर लगता मुझे अब गैरों से,
क्यों की मिला है दर्द मुझे अपनों से।
मेरे ज़ज्बात की कदर ही कहाँ,
सिर्फ इलज़ाम लगाना ही उनकी फितरत है।
प्यार करके जताए ये जरुरी तो नहीं,
याद करके कोई बताए ये जरुरी तो नहीं,
रोने वाले तो दिल में ही रो लेता है,
आँख में आंसू आए ये जरुरी तो नहीं।
हर सिग्नल तेरी याद दिलाता है,
तूने भी रंग कुछ इसी तरह बदला था।
लिखना तो ये था कि खुश हूँ तेरे बगैर भी,
पर कलम से पहले आँसू कागज़ पर गिर गया।
पता ही नहीं चला कब वो दोस्त से प्यार बन गया,
साथ गुजरा हुआ कुछ पल आज यादगार बन गया,
कर न सके उनसे इज़हार हम इस बात का,
और देखते ही देखते वह किसी और के दिलदार बन गया।
मिल जायेगा हमें भी कोई टूट के चाहने वाला,
अब शहर का शहर तो बेवफा नहीं हो सकता।
एक खेल रत्न उसको भी दे दो,
बड़ा अच्छा खेलता है वो दिल से।